भारत बंद की क्या रही उपलब्धि, नेताओं पर हुए हमले या राजनीतिक दलों की बढ़ती बेचैनी?

राजनीति, जाति, आरक्षण और राजनीतिक दल भारत मे कुछ ऐसे मुद्दे हैं जो हमेशा चलेंगे। न कभी खत्म हुई न होंगे। इन दिनों यह सभी मुद्दे एक साथ गर्म हैं। हों भी क्यों न एक एक्ट से देश की 80 फीसदी जनता जो प्रभावित है। यह दावा हमारा नही सोशल मीडिया सहित हर जगह वायरल हो रहे उस मैसेज का है जिसमे कहा गया है कि एक कानून जो महज 18 से 20 फीसदी लोगों के पक्ष में है और 80 फीसदी के विपक्ष में है। यह दावा सही भी है। वह ऐसे की देश मे बड़ी आबादी सवर्ण, अल्पसंख्यक और ओबीसी की है और सभी एससी/एसटी एक्ट के दायरे में आते हैं।

अब बात यह कि हम आपको यह बता क्यों रहे हैं। इज़के जवाब है कि भारत बंद दो बार हुआ पहली बार तब जब भारत के सुप्रीम कोर्ट ने पुराने एससी/एसटी एक्ट में संसोधन का आदेश दिया और दूसरी बार 6 सितंबर को जब सरकार ने अध्यादेश लाकर सुप्रीम कोर्ट के आदेश को रद्द कर दिया और इसे पुराने स्वरूप में ले आई। अंतर इतना था कि पिछले बार के बंद में कई राजनीतिक दल और जातियां समर्थन में थी और विरोध में कम लोग थे।

हालांकि इस बार माहौल अलग था और राजनीतिक दल दूर रहे और आम लोग यानि खास कर स्वर्ण बिरादरी सड़क पर नजर आई। इसका असर यह हुआ कि कई जगह व्यापक असर दिखा और कई जगह कुछ नही हुआ। मसलन यह अपना-अपना नजरिया है।

नजर और नजरिये की बात इसलिए जरूरी है क्योंकि जब आप मीडिया के अलग-अलग श्रोत से खबरों को देखेंगे तो आपको बड़ा अंतर दिखेगा। कहीं इसे व्यापक तो कौन फ्लॉप दिखाया जाएगा। हालांकि इसका असर आप ऐसे समझ सकते हैं कि राजनीतिक दल विरोध या समर्थन छोड़िए बयान तक देने से बच रहे हैं। बंद ने कइयों की बैंड बाजा बारात तो निकाल ही दी। सफलता और असफलता का अपना पैमाना होगा लेकिन जिस तरह कुछ रोते दिखे, कुछ छिपते दिखे, कुछ पक्ष में दिखे और कुछ चिंता करते दिखे उससे यह साफ है कि परेशानी और बेचैनी तो हुई है।

हिंसा गलत है लेकिन जिस तरह बिहार में पप्पू यादव और श्याम रजक आज भीड़ के हमले का शिकार हुए। यह सही नही लेकिन यह सोचना होगा कि यह स्थिति क्यों बनी? कौन है जिम्मेदार? इससे पहले एमपी और राजस्थान में भी कई जगह से बड़े नेताओं पर हमले की खबर आ चुकी है। राजनीति बदलेगी, बदलनी पड़ेगी। यही वक़्त की नजाकत है। खैर नजारे हम क्या देखें और दिखाएं यह तो 2019 में ही पता लगेगा।

नोट-तथ्यों के साथ इसे राजनीतिक और सामाजिक व्यंग्य के रूप में पढ़ा जाए। किसी जाति,धर्म या दल को ठेस पहुंचाना हमारा मकसद नही है। बस वास्तविकता को पेश करने की एक पहल है। आपके समर्थन और विरोध का कमेंट के माध्यम से स्वागत है।

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