लोकसभा चुनावों की रणभेरी बज चुकी है। आज की व्यवस्था में बदलाव होगा या यही व्यवस्था पांच साल और चलेगी यह तो आने वाले चुनाव परिणाम बताएंगे। हालांकि इन सब के बीच जिस तरह जाति, धर्म और दल देखकर वोट देने की परंपरा का निर्वाहन करने की तैयारी दिख रही है उससे तो यही स्पष्ट है कि हमने आज़ादी के बाद लगभग 70 साल से ज्यादा का वक़्त बर्बाद कर दिया। ऐसा कहना इसलिए जायज है क्योंकि आज भी हम दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र का दम्भ भरते हुए मानसिक गुलामी के सबसे निचले पायदान पर खड़े नजर आते हैं। आपको यकीन न हो तो अब तक विभिन्न राजनीतिक दलों के टिकट बंटवारे पर ध्यान दे लीजिए। इससे और आगे राजनीति में रुचि हो तो धर्म, जाति के पैमाने पर तोल लीजिए। तस्वीर बिल्कुल साफ हो जाएगी।
अभी कुछ दिनों पहले मैं एक निजी यात्रा पर था। 6 दिनों के अंतराल में मैंने यूपी, बिहार, झारखंड और दिल्ली की लगभग 70 सीटों की यात्रा कि और किलोमीटर में बताऊं तो यह लगभग 3000 किमी की यात्रा रही थी। इस दौरान में केजरीवाल के इलाके से निकलकर योगी के राज्य होते हुए सुशासन बाबू यानि नीतीश जी की शराबबंदी वाले राज्य बिहार तक पहुंचा। वहां से महज कुछ किमी की दुरी पर स्थित तथाकथित चौकीदार रघुबर के राज्य के कुछ इलाकों में गया। चुनावी माहौल में कुछ देर मतदाताओं से चुनावी बातें की। इस दौरान मुद्दों के गौण, मतदाताओं के मौन और चुनाव जीतने के गुण बस यही तीन बातें समझ आईं।
आपको सीटों के बंटवारे के लिहाज से कुछ सीटों का गणित बताता हूँ। तस्वीर शायद जाति धर्म वाली बात पर ज्यादा साफ हो जाएगी। विवादित और ज्यादा आपराधिक छवि वाले नेता जी हर जगह छाए हुए हैं। बिहार में जदयू-बीजेपी गठबंधन के तहत इस बार भागलपुर, बांका सीट से जदयू ताल ठोकेगी, क्योंकि जातिगत राजनीति का समीकरण फिट है। भागलपुर में मंडल की कड़ी मंडल से जोड़ी गई जबकि बांका में यादव की बराबरी करने यादव बिरादरी को उतारा गया। पटना साहिब से शत्रुघ्न सिन्हा को खामोश कर रविशंकर प्रसाद को मौका दिया गया। पूर्णिया में उदय अंग को बैठा कर संतोष कुशवाहा पर दांव खेला गया। इज़के बाद अमेठी में स्मृति ईरानी को ठोस सांत्वना के साथ राहुल गांधी के खिलाफ़ उतारा गया। बलिया में भरत सिंह को शांत कराते हुए भदोही से सांसद रहे वीरेंद्र सिंह मस्त को टिकट थमा दिया जबकि रामइकबाल सिंह जैसे जनता के प्रतिनिधि को बेटिकट कर दिया गया। गाजीपुर से मनोज सिन्हा बरकरार तो रहे लेकिन कानपुर से मुरली मोहर जोशी बेटिकट हो गए।
यह एक रणनीति चुनावी जीत की हो सकती है लेकिन जिस तरह राजनीति के लिए शहनवाज़ हुसैन भागलपुर से, कद्दावर नेता दिग्विजय सिंह की पत्नी पुतुल सिंह बांका से, भरत सिंह बलिया से, मुरली मनोहर जोशी कानपुर से, अशोक धोहरे इटावा से,प्रियंका रावत बाराबंकी से, गिरिराज सिंह नवादा से,नेपाल सिंह रामपुर से, राजेश पांडेय का टिकट कुशीनगर से,लालकृष्ण आडवाणी का गांधीनगर से काटा गया वह महज एक दल के आधार पर स्पष्ट करने को काफी है कि नेता अहम नही है, बेशक वह कितना भी कद्दावर क्यों न हो, अगर कुछ मायने रखता है तो उसका धर्म, जाति और वोट बैंक की राजनीति। आप एक मतदाता के रूप में सोचिएगा, जागरूक रहिएगा तभी शायद लोकतंत्र का फायदा होगा और इसकी महानता बरकरार रहेगी।