कंक्रीट के जंगलों में खो रही जीने की राह

आधुनिकता आज हमारे रग-रग में है। हम अंदर से कुछ और, बाहर से कुछ और बनने का ढोंग कर रहे हैं। एक तरफ हम विकास की अंधी दौड़ में शामिल होकर अपनी संस्कृति और संस्कार भूलते जा रहे हैं वही छोटी-छोटी परेशानियों से तंग आकर आत्महत्या जैसे कदम उठा रहे हैं। किसी भी देश या समाज के लिए यह खबर कही से सही नही कही जा सकती है। खास कर भारत देश मे जिसे युवाओं का देश कहा जाता है।

आज हर इंसान परेशान है किसान अपनी खेती, नुकसान और कर्ज से परेशान है, विद्यार्थी नतीजों और दबाव से परेशान है, सरकार घोटालों से परेशान है, शिक्षक वेतन न मिलने से परेशान है, व्यापारी जीएसटी से परेशान है और न जाने कितने लोग कितनी ऐसी परेशानियों से परेशान हैं। हम आज ऊंची-ऊंची अटारियों वाली बिल्डिंगों में रह जरूर रहे हैं लेकिन हमारी सोच का स्तर घट रहा है, सोचने की क्षमता घट रही है। हम अपने ही बनायें इन जंगलों में घिर रहे हैं उलझ रहे हैं, अकेले पड़ रहे हैं, हमें इस राह पर चलने के लिए साथ चाहिए। यह कोई दोस्त हो परिवार हो जिससे हम अपना सुख दुख बांट सकें, समझ सकें समझा सकें, जागरूक बन सकें तभी जाकर आत्महत्या जैसे मामले रुकेंगे। 

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