उद्योग की आड़ में खो रहे किसान

भारत जैसे देश जहां कृषि मुख्य पेशा है और यही उसकी पहचान है वहां उद्योग स्थापित करने की अंधी दौड़ में हम ऐसे उलझे की अपनी ही पहचान के दुश्मन बन बैठे। हम ऐसा नही कह रहे यह गलत है या नही होना चाहिए लेकिन इसके लिए एक सीमा तय होनी चाहिए। जिस भारत की पहचान गांव से है उसका शहरीकरण कुछ वजहों से सही कहा जा सकता है लेकिन अगर हम ऐसे ही बेतरतीब दौड़ते रहे तो वह दिन दूर नही जब अन्न के लिए दूसरे देशों के सामने हाथ फैलाते नजर आएंगे।


उद्योग बेशक रोजगार देते हैं लेकिन यह उद्योग किसान के लिए सबसे बड़ा खतरा बन रहे हैं। आज उद्योग धंधे के नाम पर किसानों की जमीनों को हड़प लिया जाता है। उन्हें न उचित मुआवजा मिलता है न रोजगार। ऐसे में किसान उलझ कर अपनी जिदगी की जंग हार जाता है। वह बेबश और लाचार हो जाता है। अगर मुआवजा मिल भी गया तो वह इतना नही होता कि जीवन भर उससे गुजारा किया जा सके।

ऐसे बहुत उदाहरण आये दिन हमें देखते को मिलते रहते हैं, विरोध प्रदर्शन भी होते हैं लेकिन पूंजीपतियों और सरकार की मिलीभगत के आगे गरीब किसान की एक नही चलती और वह थक हार कर बैठ जाता है। साथ ही जब स्थित्ति बद से बदतर होती है तो उसके पास आत्महत्या के अलावा कोई विकल्प नही होता। कई बार यह पूरे परिवार या सामूहिक रूप से होता है जो भयावह है। क्या किसानों की जान लेकर उद्योग की बुनियाद डालना उचित है?

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