बीजेपी को छोड़िए शिवसेना की सोचिए…

राजनीति में न कोई स्थाई दुश्मन है न दोस्त यह कहावत भारतीय लोकतंत्र में एक ऐसी बात है जो आम बोलचाल की भाषा मे लगभग हर दिन प्रयोग में लाई जाति है। कभी बिहार में आरजेडी-जेडीयू के लिए तो कभी कश्मीर में बीजेपी-पीडीपी गठबंधन को लेकर हालांकि इन बेमेल गठबंधनों के गवाह हम-आप और आवाम सभी हैं। जिनका हश्र और इनकी सरकार हमने झेली है। अब इसी को उदाहरण और प्रेरणा मान कर शिवसेना अपने धुर विरोधी एनसीपी और कांग्रेस से गठबंधन के भरोसे सरकार बनाने की जद्दोजहद और जिद पर अड़ी है। हालांकि यह पूरी भारतीय आवाम को ज्ञात है कि इसका अंजाम ढाक के तीन पात होगा।

शिवसेना बाला साहब ठाकरे के नाम और काम पर बनी। मौका और दस्तूर या साथ कहें संयोग ऐसा बना की हिंदूवादी नेता की फायरब्रांड छवि चल निकली और समाचार पत्रों का एक अदना सा कार्टूनिस्ट जो अपने तीखे कटाक्ष और व्यंग्य के लिए मशहूर था वह आम जनमानस खास कर हिंदूवादी राजनीति का पुरोधा हस्ताक्षर बन गया। वक़्त की सुई घूमी और पहली मर्तबा केंद्र तो नही लेकिन पहली ही बार मे वह महाराष्ट्र की राजनीति के धुरी बन कर उभरे। खैर यह तो शुरुआत की बात हुई।

यह शिवसेना उन्ही बालासाहेब की हिंदूवादी आधारभूत संरचना पर खड़ी थी जहां कट्टर हिंदूवाद की छवि थी, राष्ट्रवाद की छाप थी, पाकिस्तान का मुद्दा था, और एक होड़ थी जिसमे यह साबित करना था कि शिवसेना से ज्यादा भला इस राज्य और देश का कोई न सोच सकता है न कर सकता है। हालांकि एक कहावत है कहते हैं वक़्त बदलने में वक़्त नही लगता। समय का पहिया घूमना तय था। शिवसेना को बीजेपी का साथ मिला गठबंधन हुआ। साथ मे सरकारें आई और गई। मनोहर जोशी और नारायण राणे सीएम तक बने क्योंकि बीजेपी ने गठबंधन धर्म का पालन किया और ज्यादा सीटों वाली शिवसेना को बड़े भाई की भूमिका दी।

खैर वक़्त बदला, मोदी युग आया 2014 में केंद्र की सत्ता में बीजेपी प्रचंड बहुमत से आई लेकिन शिवसेना-बीजेपी गठबंधन टूट गया। मराठा मानुष वाली पार्टी अलग हुई चुनाव लड़ा और नंबर दो की भूमिका में आने के बाद फिर बीजेपी के साथ आने को मजबूर हुई। देवेंद्र फडणवीस सीएम बने। सरकार अच्छी चली। 2019 के लोकसभा और विधानसभा में यह पहले से तय था बराबरी राज्य की राजनीति में 50-50 होगी। हालांकि कहते हैं न लोभः पापस्य कारणं, हुआ भी यही, पहली बार ठाकरे खानदान का एक लड़का चुनाव लड़ा और जीत गया। नाम है आदित्य ठाकरे, पिता उद्धव ठाकरे हैं और दादा बालासाहेब थे। बस यही काफी है आपको भारतीय राजनीति में एक पहचान और पार्टी अध्यक्ष या सीएम दावेदार बनने के लिए। सो यही हुआ नतीजे में हरियाणा और महाराष्ट्र में हरियाणा के नतीजे ज्यादा उलझे थे लेकिन अंततः महाराष्ट्र में बवाल मच गया। 

पुत्र मोह में उद्धव ऐसे फंसे की आज की तारीख में बीजेपी जैसी दुनिया की सबसे बड़ी पार्टी और भारत के अधिकतर राज्यों में सत्ता के सिंघासन पर काबिज दल से अलग होने का फैसला कर लिया। उन्होंने शायद अपने फैसले का आंकलन नही किया। अगर करते तो यूपी में अखिलेश, बिहार में तेजस्वी और तेजप्रताप याद रहते। परिवारवाद का मुद्दा सामने होता। खैर राजनीति के माहिर खिलाड़ी रहे बालासाहेब ठाकरे की दो पीढ़ियों के हाथ मे शिवसेना का नेतृत्व है। ऐसे में कोई तो प्लान बी होगा ही, न भी हुआ तो कौन सी यह दुश्मनी स्थाई और दोस्ती अस्थाई है। 

इन सभी बातों के बीच अगर बीजेपी और आरएसएस के रुख को देखें तो यह स्पष्ट है कि बीजेपी की बिन मांगी मुराद पूरी हो गई। गठबंधन भी तोड़ने का आरोप न लगा और महाराष्ट्र जैसा बड़ा राजनीतिक मैदान भी बिल्कुल सपाट और खाली मिल गया। पहले ही मुद्दों का अभाव झेल रही शिवसेना के लिए एनसीपी और कांग्रेस से गठबंधन कोढ़ में खाज का काम कर सकता। इसके पीछे शिवसेना की अपनी छवि जिम्मेदार है। एनसीपी और कांग्रेस जहां सेक्युलर राजनीतिक पहचान रखती हैं वहीं शिवसेना कट्टर हिंदूवादी छवि वाली पार्टी है। साथ ही क्षेत्रीय राजनीति में एनसीपी के अध्यक्ष और राजनीति के दिग्गज मराठा छत्रप शरद पवार से सहारा लेकर स्थानीय राजनीति में शिवसेना का कद तो बढ़ने से रहा। इन आकलन और अनुमानों के बीच तस्वीर, ताकत और फितरत आने वाले कुछ दिनों में ज्यादा स्पष्ट नजर आएगी। फिलहाल इस राजनीतिक नूरा कुश्ती का मजा लीजिये। 

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