बिहार इन दिनों तनाव के माहौल से गुजर रहा है। यह तनाव घरों, शहरों से लेकर सड़क और सरकार तक महसूस होने लगा है। हर तरफ से सरकार और प्रशासन पर विफल रहने का आरोप लगाया जा रहा है। इसके बावजूद बिहार के सीएम नीतीश कुमार चुप हैं। अभी तक कोई ऐसा एक्शन हुआ भी नही जिससे कहा जाए कि सरकार सख्त है। इतना जरूर है कि तनाव के इस दौर में किसी भी बड़ी या अप्रिय घटना को रोकने में प्रशासन सफल रहा है।
यही वजह है कि बिहार बदनाम हुआ लेकिन बंगाल जैसी स्थिति से बच गया। खैर अब इन मुद्दों को लेकर राजनीतिक गलियारों में चर्चा का दौर गर्म है, नीतीश की छवि और भूमिका बदली-बदली नजर आ रही है। ऐसे में सवाल है क्या नीतीश के लिए बीजेपी मजबूरी बन गई है या वह आत्मविश्वास से लबरेज हैं? आइये समझें?
नीतीश की छवि की बुनियाद सुशासन से है। अब तक उनका कार्यकाल निर्विरोध और साम्प्रदायिक तनाव से मुक्त रहा था। इसके अलावा आज तक उनके पास विकल्पों की कोई कमी नही थी लेकिन अब राजद से अलग हो कर वह घिरे हुए हैं और बीजेपी के साथ रहना उनकी मजबूरी भी है। इसके अलावा वह भागलपुर से शुरू हुए इस विवाद में बीजेपी नेता अश्वनी चौबे के बेटे अर्जित शाश्वत चौबे को गिरफ्तार करा उन्हें फालतू की पब्लिसिटी दिलाने के मूड में भी कहीं से नजर नही आ रहे। ऐसे भी जैसा कि हम सभी जानते हैं कि नीतीश एक गंभीर प्रवृति के नेता हैं और वह बयान से ज्यादा कर दिखाने में रुचि रखते हैं। शायद यह भी एक वजह है कि इतने हंगामे के बावजूद वह चुप हैं।
आत्मविश्वास की बात करें तो नीतीश को अपने शासन और प्रशासन पर पूरा भरोसा है, ऐसा लगता है। यही वजह है कि वह इतने तनाव के बीच भी सिर्फ नजरें गड़ाए, दबाव झेलते हुए हुए चुपचाप स्थित्ति के आकलन और राजनीतिक नफा नुकसान में लगे हैं। इसके अलावा नीतीश की चुप्पी के पीछे कई अन्य कारण भी हो सकते हैं लेकिन अब तक जो बातें समझ आ रही हैं उनके मुताबिक या तो बीजेपी का साथ अब मजबूरी बन रहा है या नीतीश के लिए जरूरी है। अब देखना है आज तक ऐसे हालातों से दूर रहने वाले नीतीश आने वाले वक्त में इस स्थिति से निपटने का कौन सा फार्मूला निकालेंग और हिंदुत्व के एजेंडे पर आगे बढ़ रही बीजेपी का साथ कब गके निभा पाएंगे