विश्व के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश भारत की अपनी खूबियां हैं, अपनी खामियां है। खास बात भी है हम दुनिया के बनाये रास्ते पर नही चलते बल्कि उससे उलट एक अलग राह लेकर चलने की कोशिश करते हैं। इसे यूं समझें घर मे किसी ने इंजीनियरिंग की और नौकरी नही मिली तो बस वह लाइन छोड़ो, कौन सी पकड़ो? तो मोहल्ले में देखो किसने कैसे किस पढ़ाई में झंडे गाड़े, वहां से शुरू हो जाये, उसके बाद समाज, गांव, शहर, जिला, राज्य और राष्ट्रीय राजधानी तक यही हाल है। ऐसा क्यों लिखा है अंत तक स्पष्ट कर दूंगा। खैर खूबियों की बात करें तो हमारा संविधान है, कानून है, कुछ भी बोलने के लिए अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता है, सड़क जाम करने की आज़ादी है, विरोध करने का हक है, रेल सहित अन्य सरकारी संपत्तियों को फूँक कर विरोध दर्ज कराना हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है। बताओ ऐसा कहाँ है? सब शांति से बेड़ा गर्क करने को चलता रहे उसका भी पूरा इंतजाम है। उदाहरण के लिए आरक्षण की बात कर लेते हैं। यह वह संजीवनी है जिसने गधों को घोड़ा बनाने में बड़ा योगदान निभाया है। इससे भी अलग बात करें तो जात-धर्म दल की राजनीति ने तो विश्वगुरु बनाने में किसी भी तरीके का कोई कसर नही छोड़ा है।
हम अलग-अलग राज्यों को सरदार पटेल की वजह से मिलाकर एक राष्ट्र तो बन गए लेकिन न हम कभी हुए न हो सकेंगे। उदाहरण देता हूँ क्योंकि यह समझना और समझाना भी आसान नही है। बिहारी शिक्षा में आगे हैं लेकिन हर जगह गाली खाना पहला अधिकार है, मतलब जितना भारतीयों का सम्मान पूरी दुनिया मे है उतना ही बिहारी लोगों का भारत के अन्य राज्यों में, मसलन गुजरात, महाराष्ट्र, दिल्ली, तमिलनाडु, कर्नाटक इत्यादि में है। अब भाषा की बात सब को अपनी चाहिए मतलब हिंदी राष्ट्रभाषा रेलवे के गेट और खिड़कियों पर पोस्टर लगाने को है। बाकी तो हर कुछ किलोमीटर में हिंदी की ऐसी तैसी और बाकी गलती से अगर मेट्रो शहर में पहुंच गए तो न हिंदी न राज्य की भाषा वहां तो अंग्रेजी चाहिए वह भी तोते की तरह वाली। दूसरी समस्या संस्कृति के नाम पर देश की ऐसी तैसी अलग हो रखी है बाकी इतिहास तो अपने हाथ मे है और सोशल मीडिया भी है जैसी जिसकी सोच वह वैसा लिख रहा है। कहीं गोडसे तो कहीं गांधी महान हैं। कहीं 26 जनवरी पर पीएम को लाल किले से भाषण देने की चुनौती दी जा रही है। कहीं कुछ तो कहीं कुछ।

दुनिया बुनियादी जरूरतों यानि रोटी, कपड़ा, मकान, स्वास्थ्य, शिक्षा, बिजली, पानी इत्यादि से आगे बढ़ कर अब मंगल और चांद तक पर प्लाट लेने की जद्दोजहद में है। हम बॉलीवुड के मिशन मंगल की कमाई पर खुश हैं। इसरो को इस कहानी से दूर रखते हैं क्योंकि जो उन्होंने सीमित संसाधनों और माध्यमों के बावजूद कर दिखाया वह दुनिया मे किसी ने न किया न कर पायेगा। दुनिया भारत को बड़े बाज़ार के तौर पर प्रयोग में लगी है, हम उपभोक्ता के तौर पर सही भी हैं लेकिन राष्ट्रवाद की भावना साल में दो तीन बार जाग जाती है, उदाहरण के लिए मकर संक्रांति पर चीनी मांझे पर प्रतिबंध के लिए, दीवाली पर चीनी लड़ियों और बत्तियों पर बैन के लिए इत्यादि। बाकी सब 345 दिन सही नजर आता है। हम पाकिस्तान में महंगे टमाटर की खबर सुनकर ताली पीट स्टेटस शेयर कर खुश हो लेते हैं बताओ कौन सा देश इतना पॉजिटिव है।
जीडीपी, बजट, जीएसटी, नोटबन्दी, तीन तलाक, राम मंदिर, 370 को दशकों तक न समझ पाने वाले लोग सीएए और एनआरसी एक दिन में समझ गए तो हम कह सकते हैं देश आज नही तो कल बराबरी कर लेगा। दुनिया से तुलना कर के बात कह रहा हूँ। अब आते हैं टाइटल के हिसाब से मुद्दे की बात पर आज शाम को सब्जी लेने निकला, शनि बाज़ार सड़कों पर लगा होता है, झोले भर सब्जी लेकर वापसी के लिए मुख्य सड़क से अपनी गली की ओर चला तो आप के झंडे, कहीं कहीं बीजेपी के झंडे और कांग्रेस का तो एक पूरा मंच नजर आ गया। तब तक हूटर बजाती 5-7 गाड़ियों का एक काफिला आ गया। पुलिसवालों ने सड़क पर भीड़ को रोक दिया या आते जाते लोगों से परे एक घेरा बना दिया।

थोड़ी देर में एक खुली जिप्सी आई, उसमें भगवंत मान बोनट पर बैठे थे, प्रत्याशी खड़े थे। उसके पीछे की गाड़ियों में एक या दो लोग थे लेकिन अंतिम दो गाड़ियों में स्कूल ड्रेस पहने कुछ बच्चे भरे थे। खैर काफिला निकला और उसके बाद हम, लोकतंत्र में नेताओं के लिए जनता इंतजार करती ही है सो हमें भी कोई जल्दी थी नही। उसके बाद ध्यान कांग्रेस के मंच पर आ टिका जो सड़क के बीचोबीच बना हुआ था। कुर्सी और दो बैनर कुछ झंडों के अलावा तब तक कुछ और नजर नही आया। शायद सभा देर से शुरू होनी थी। उसके बाद बीजेपी का कोई नेता तो नही दिखा लेकिन कुछ युवा झंडे लिए मोर्चा संभाले नजर आए। अब हमें क्या लेना देना, न हम यहां के वोटर न हमारी प्रत्याशी से कोई निकटता तो हम अपने घर हो लिए।

अब मुद्दे की बात टाइटल अब भी मिसलिडिंग नही है। टाइटल में मैंने लिखा है राजनीति की काल कोठरी में आसान नही है केजरीवाल या मोदी होना। मैं चाहता तो और भी कई नाम लिख सकता था तुलना करने के लिए लेकिन इन दो नामों में कुछ आम तथ्य हैं। जैसे दोनो का राष्ट्रीय राजनीति में उदय घोटालों से घिरी सरकार के खिलाफ हुआ। एक अनशन से निकल, आरोप-प्रत्यारोप को झेलते यहां तक पहुंचा दूसरा गुजरात मे किये अपने काम और राजनीतिक संघर्ष के बदौलत, दोनो एक दूसरे के खिलाफ चुनाव लड़ चुके हैं। दोनो ने राजनीति में कम से कम एक साझा मुकाम हासिल किया है वह है किसी पर भी घोटाले का आरोप नही है।
अब दोनो में अलग क्या है? केंद्र और राज्य उसमें भी आधा दोनो की जिम्मेदारियां निभाना, देश और राज्य के मुद्दों को समझना और सुलझाना, इसके बाद केजरीवाल मोदी के खिलाफ निजी हमले तक पर उतारू रहे लेकिन मोदी ने उनके खिलाफ निजी तौर पर एक शब्द नही कहा है। जिस देश की पहचान घोटाले वाली रही हो वहां केजरीवाल और मोदी दोनो एक पैमाने में फिट नजर आते हैं। दोनो अपनी अपनी जगह काम करने की छवि बनाते नजर आते हैं और दोनो की लोकप्रियता की अलग-अलग वजहें हैं। बाकी दिल्ली के मन की बात 11 फरवरी को पता लगेगी। तब तक अगर इस लंबे लेख को आपने पढ़ने का साहस किया है तो यह आपकी उपलब्धि है और हम आपके आभारी। धन्यवाद।