बिहार को राजनीति का रिसर्च सेंटर कहा जाता है। ऐसा माना जाता है कि जब भी राजनीति में बड़े बदलाव की पटकथा लिखी गई, उसमे बिहार का बड़ा योगदान था। यह आज़ादी से पहले और आज़ादी के बाद भी समान रूप से चलता रहा। जेपी आंदोलन हो या आपातकाल बिहार की सहभागिता हमेशा देश के अन्य राज्यों के मुकाबले ज्यादा ही रही।
बिहार की वर्तमान राजनीति में भी बड़े बदलाव के तो नही लेकिन उलटफेर के संकेत दिख रहे हैं। राजनीतिक पंडित और जानकर भी राजनीतिक गलियों में जारी इस उठापठक से इनकार नही कर रहे हैं। यहां की राजनीति के बारे में इसलिए भी अनुमान और सटीक आकलन नही लगाया जा सकता क्योंकि 2014 के लोकसभा चुनाव और उसके बाद 2015 के बिहार विधानसभा के चुनाव में बड़े उलटफेर की गवाह यहां की जनता पहले ही रह चुकी है। ऐसे में 2019 से पहले भी एक दिलचस्प राजनीतिक घटनाक्रम देखने को मिल सकता है।
ज्यादा इधर उधर न भटकते हुए मुद्दे की बात करते हैं। आज की तिथि में सबसे बड़ा मुद्दा गठबंधन की स्थिरता है। गठबंधन सिर्फ इसलिए क्योंकि पक्ष और विपक्ष दोनो ही गठबंधन के भरोसे हैं। एक तरफ जहां विपक्ष में कांग्रेस-राजद जैसे दल अन्य सहयोगियों के साथ सरकार की मुश्किलें बढ़ाने को बेताब हैं वहीं दूसरी तरफ नीतीश बिना किसी रिस्क के यह पहले ही तय कर लेना चाहते हैं कि बीजेपी, जदयू, रालोसपा,लोजपा के इस गठबंधन में उनकी सहभागिता क्या होगी? सीट बंटवारे का पैमाना और संख्या क्या होगा?
नीतीश राजनीति के मंझे खिलाड़ी हैं। वह बिहार में एक बड़ा चेहरा हैं इसमे कहीं कोई संदेह नही लेकिन जिस मोदी लहर में नीतीश का दल महज दो सीटों पर अटक गया क्या 2019 में नीतीश उसके खेवनहार बनेंगे? क्या बीजेपी उन्हें उनके मनमुताबिक सीटें देगी? अगर देगी तो यह तय है कि बाकी लोजपा और रालोसपा जैसे दलों पर इसका असर पड़ेगा और गठबंधन को ऐसे में नुकसान उठाना पड़ सकता है।
खैर 2019 से पहले सीटों की इस खींचतान में कौन 19 और कौन 20 साबित होगा यह तो वक़्त बताएगा लेकिन इतना तय है कि राजनीति में हमेशा संभावनाओं का द्वार खुला माना जाता है। ऐसे में भले ही बीजेपी की पास बिहार की राजनीति में कोई विकल्प न हो लेकिन जदयू के लिए विकल्पों के दरवाजा खुला है।
नीतीश बीजेपी में आने से पहले एक सर्वमान्य नेता रह चुके हैं। वह वापस उस राजनीति में जा सकते हैं, और चले भी गए तो किसी को भी कोई शंका, संदेह या आश्चर्य नही होना चाहिए। इसके अलावा नीतीश की राजनीति को जितना अब तक समझा जा सका है वह तोल-मोल में माहिर रहे हैं। चाहे बात 2014 चुनाव से पहले पीएम उम्मीदवार के रूप में नरेंद्र मोदी के नाम पर बीजेपी से नाता तोड़ने की बात हो या 2015 चुनाव से पहले लालू को नीतीश के चेहरे के नाम पर मजबूर कर देने की, जदयू और नीतीश इस राजनीतिक शतरंज़ के बादशाह रहे हैं।
मोदी की अपनी अलग यूएसपी है और उनके चेहरे के दम पर बीजेपी आज 20 से ज्यादा राज्यों में सत्ता में है। ऐसे में देखना होगा कि बिहार की राजनीति किस करवट बदलती है और कौन इसका बाजीगर बनता है।