आरक्षण के नाम पर गुमराह है हर वर्ग, कोई नही रहनुमा, पढ़ें कैसे?

आरक्षण भारत मे वह पुरानी बीमारी है जो आज तक किसी न किसी समुदाय को अपने जद में ले रही है। कभी जाट आरक्षण तो कभी पटेल आरक्षण और हाल फिलहाल चल रहा मराठा आंदोलन इसकी महज एक बानगी भर हैं। ऐसा ही एक आंदोलन झारखंड में चला जिसे महतो समुदाय और कोइरी,कुर्मी को विशेष आरक्षण देने के नाम पर हर राजनीतिक दल के नेता ने समर्थन दिया। ऐसे न जाने कितने आंदोलन हुए, इनमे से न जाने कितने हिंसक हुए और न जाने कितना जान माल और संपत्ति का नुकसान हुआ।

इन सब से परे एक बात यह जरूर तय है कि आगाज़ और अंजाम भले ही नुकसान से शुरू हो कर नुकसान पर खत्म हुआ लेकिन इसका राजनीतिक फायदा जरूर किसी न किसी खास राजनीतिक दल और वर्ग के नेता को हुआ। भारत मे जितनी बड़ी समस्या आरक्षण है उससे बड़ी कहीं न कहीं जातिगत राजनीति है। हमारे देश मे आज भी चुनाव जाति और धर्म के नाम पर लड़े और जीते जाते हैं। क्योंकि हमें न विकास की परिभाषा पता है न सरकार से मिला कोई ऐसा फायदा याद है जो किसी जाति-धर्म को छोड़ समाज के काम आया है।


खैर इन सब से अलग हट कर बात करते हैं आरक्षण के नाम पर सालों और दशकों से चली आ रही राजनीति की। इस राजनीति में न जाने कितने ऐसे नेता पनपे जो आये तो दलितों के मशीहा बनकर लेकिन आज मंत्री और धन कुबेर बन उनके दर्द को भूल गए।

कई ऐसे आये जिनके जिम्मे एक पिछड़े और शोषित वर्ग का प्रतिनिधित्व था लेकिन राजनीतिक और कुर्सी के मोह ने उन्हें लालची बना दिया। वह इस कदर राजनीति के गुलाम बने की न उन्हें दलितों या शोषितों की पीड़ा याद रही न यह याद रहा की उनका दायित्व क्या था। वह कुर्सी के लिए मोल भाव कर बैठे। आरक्षण को राजनीति के लिए उपयोग किया। परिवार के मोह में डूबे और उन तमाम सपनों को डूबा दिया जो उनको जनप्रतिनिधि चुनते हुए आम लोगों ने दलितों ने देखे थे।

इज़के कई उदाहरण हैं लेकिन शायद उनका नाम लेना सही नही है। यह सही भी है और गलत भी है। सही इसलिए क्योंकि हम जातिवादी राजनीति के आदि बन चुके हैं और गलत इसलिए क्योंकि हम सब जानते हुए भी उनको ही अपना रहनुमा मानने को मजबूर हैं। खैर बसपा से लेकर लोजपा और कांसीराम से लेकर मायावती, शिबू सोरेन से लेकर रामविलास पासवान और उनके बेटे और भाई तक यह सवाल जरूर पूछा जाना चाहिए कि आपका आपके समाज के लिए क्या योगदान है। पूछा तो ओवैसी और अन्य उन तमाम नेताओं से भी जाना चाहिए जो किसी खास धर्म और जाति का गीत गाकर यहां तक पहुंचे हैं। खैर शायद ही यह क्षमता भारत की राजनीति में आए। लेकिन उम्मीदों के आंगन में आशा का दीप जलाए रखने को ही शायद आशा कहते हैं। उम्मीद है एक वक्त आएगा जब समाज इन रहनुमाओं से सवाल पूछेगा और जवाब मांगेगा।

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