एससी/एसटी एक्ट को लेकर इन दिनों भारत की राजनीति में बवाल मचा हुआ है। एक वर्ग सुप्रीम कोर्ट के फैसले को बदलवाने के लिए अड़ा हुआ था तो वहीं दूसरे वर्ग ने अब सरकार के अध्यादेश के खिलाफ मोर्चा खोल रखा है। अब दलितों के बाद सवर्ण समाज की बारी थी। इस वर्ग की मांग है कि सरकार अपने अध्यादेश को रद्द करे और सुप्रीम कोर्ट ने जो फैसला दिया था उसे उसी स्वरूप में लागू किया जाए। हालांकि इसमें राजनीतिक फायदा देखने वाले पशोपेश में हैं। वह इसलिए क्योंकि बीजेपी के शीर्ष नेतृत्व ने शायद जल्दबाजी में दलितों को लुभाने के चक्कर मे अपने कोर वोटर को नजरअंदाज और नाराज कर दिया है।
यही वजह भी है कि एक वर्ग जहां खुल कर बीजेपी और अन्य स्वर्ण नेताओं के साथ मोदी सरकार की खिलाफत कर रहा है। वहीं एक बड़ा वर्ग ऐसा भी है जो सोशल मीडिया पर नोटा को लेकर लगातार आंदोलन कर रहा है। नतीजे तो समय की गर्भ में हैं। लेकिन इन सब के बीच इतना तय है कि इस मुद्दे और इस पर बढ़ते विरोध ने नेताओं की परेशानी तो बढ़ा ही दी है। इन सब के बीच दलितों और सवर्णों के बंद के बीच अब तुलना की जा रही है। मसलन इसकी सफलता और असफलता पर? क्या खोया, किसने खोया और क्या पाया कितना पाया इत्यादि। खैर इज़के बीच जो सबसे ज्यादा चर्चा में है वह है बंदी का तरीका।
दलितों के बंद के दौरान जहां बड़े पैमाने पर हिंसा और तोड़फोड़ की खबरें थी वहीं इस बार सवर्णों के बंदी के दौरान कहीं से भी हिंसा की कोई खबर नही आई। इज़के अलावा सोशल मीडिया पर कुछ खबरें ऐसी आईं जो न सिर्फ मानवता बल्कि आर्मी के सम्मान में भी तत्पर दिखीं। सोशल मीडिया पर वायरल तस्वीरों में बंद के दौरान आर्मी के ट्रकों और एम्बुलेंस को रास्ता देने के साथ नारेबाजी बंद करने की तस्वीरों को खूब शेयर किया जा रहा है। कैप्शन भी मजेदार हैं। अंजाम जो भी हो लेकिन जिस तरह बंदी के दौरान शांति और धैर्य का प्रदर्शन किया गया वह वाकई काबिले तारीफ है।