राजनेताओं से यह सवाल पूछने की जहमत कौन उठाये, पूछ भी लें तो कौन सा भला हो जाये?

राजनीति में विकास की परिभाषा यूँ तो बहुत आसान है। इसे जनता को धोखा दे वोट लेने का माध्यम कह सकते हैं, या नई राजनीति के नाम पर लोगों को ठगने का प्रयास। खैर जो भी हो लेकिन हाल के दिनों में राजनीति के गिरते स्तर, असल मुद्दों का गौण होना और जाति धर्म का आड़े आना इतना तो तय कर गया कि वर्तमान परिदृश्य में विकास शब्द की न कोई जगह है और न ही कोई दल इसमे रुचि लेने को तैयार दिखाई दे रहा है।

दिलचस्प यह भी है कि आज इसपर सवाल भी नही उठाये जा रहे हैं। ऐसा इसलिए है क्योंकि न इससे टीआरपी मिलेगी, न इसमे कोई मसाला है, न किसी की दिलचस्पी है।

आज विकास का सीधा सा मतलब जाति और धर्म के विकास की तरफ मोड दिया गया है। आज सड़क, बिजली, पानी, शिक्षा, रोजगार सब मुद्दों की लिस्ट से बाहर हैं। छात्र सड़क पर हैं, किसान बेहाल हैं, शिक्षा बदहाल है,स्वास्थ्य सेवाओं की सच्चाई किसी से छुपी नही है, महंगाई मुंह बाए खड़ी है, अर्थव्यवस्था और बैंकिंग सेक्टर का बुरा हाल है लेकिन इन गंभीर मुद्दों की सोचे कौन और सवाल कौन पूछे?

सवाल पूछ भी लिए तो जवाब कौन दे? जवाब दे भी दिए तो आंकड़ों की इस बाजीगरी को समझने में समय कौन लगाए? समय लगा भी दें तो कौन सा किसी एक के समय देने से देश का भला हो जाये? ऐसे में यह जहमत कौन और क्यों उठाये?

राजनीति को छोड़िये मीडिया की तो बात और निराली है। यह मीडिया सलमान के जेल जाने को ब्रेकिंग बनाती है? किस वार्ड में रहेंगे, क्या खाएंगे, पड़ोसी कौन होंगे और न जाने क्या-क्या? लेकिन यह मीडिया ( जिसका हिस्सा हम भी हैं) वह उस बेटी को भुला जाती है जिसने आज देश का नाम रौशन करते हुए ऑस्ट्रेलिया में चल रहे कॉमन्वेल्थ गेम में गोल्ड मेडल जीत देश की शान बढ़ाई है।

मीडिया को भी अब मुद्दे नही दल नजर आते हैं? पत्रकारिता में प्रॉफिट नजर आता है? खबरें नही सेंसेशन नजर आता है? मुद्दे नही टीआरपी नजर आती है। ऐसे में विकास का अर्थ कौन बताये, किसे बताये, किस्से पूछे और कौन समझे? खैर जनता भी मगन है कभी पेट पालने की जद्दोजहद में तो कभी जाति- धर्म तय करने में ऐसे में हमें क्या हम भी तो इसी में लगे हैं? बाकी सब ठीक है।

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