कोटा के काँटे

कोटा,राजस्थान का एक शहर जो अपनी पढाई के लिए प्रसिद्ध है,हर साल लाखों की संख्या में बच्चे इंजीनियरिंग और मेडिकल के तैयारी के सपने लिए कोटा में कदम रखते हैं,कुछ सफल होते हैं बाकी दूसरी राह की तालाश में आगे बढ़ चलते हैं।माँ-बाप के अरमानों की डोली लिए बच्चे कोटा और सपनों की दुनिया में चाहते या न चाहते हुए भी कदम रख देते हैं,उम्मीदों के बोझ तले दबे बच्चों को जब मशीन समझ कर उनपर सिर्फ दबाव के बल पर सब कुछ अर्जित कर लेने का,अरमानों,उम्मीदों को पूरा करने का जोर डाला जाता है तब इनमे से बहुत कम ही ऐसे हैं जो सामंजस्य बिठा खुद को इस माहौल में ढाल पाते हैं और किसी उपलब्धि को प्राप्त कर पाते हैं बाकी जो लाखों की संख्या में असफल होते हैं वह अलग -अलग राहें चुनने को बाध्य होते हैं,यहाँ तक सब ठीक जान पड़ता है लेकिन जब किसी विशेष राह पर चलने की बाध्यता हो,कोचिंग,माँ-बाप का दबाव हो,अपनों से दूर रह कर बस किसी तरह मैनेज करते हुए अरमानों को पूरा करने का जूनून हो और ऐसे में असफलता एक ऐसा कड़वा सच है जो अच्छे अच्छे विद्यार्थियों को तोड़ देती है।
कोटा सालों से ज्ञान का केंद्र रहा है लेकिन पिछले कुछ सालों में जहाँ ज्ञान नहीं बस जबरदस्ती का कूड़ा कर्कट ठूस कर आइंस्टीन और आर्यभट्ट बनाने का सपना बिकता है,कोटा जहाँ कश्मीर से कन्याकुमारी और मेघालय से गुजरात के बच्चे अपने सपने संजोए आते हैं,जहाँ माँ बाप अपने रुतबे  के लिए अपने बच्चों को बंसल और आकाश जैसी फैक्टरियों के हवाले कर आते हैं जिन्हें सिर्फ और सिर्फ अपने पैसे और परिणाम से मतलब होता है।
पिछले कई सालों से एक भयानक सच कोटा के नाम में काला धब्बा लगा रहा है,लेकिन इससे आने वाली पीढ़ी और उनके माता पिता को कोई फर्क नहीं पड़ता क्योंकि दुनिया के इस भीड़ में और भेड़ों के झुण्ड में भी बस उन्हें अपने रुतबे से अपने बच्चे के लिए खुद सोचे गए रास्ते भर से मतलब है,यह काला सच है हर वर्ष पढ़ने वाले मेधावी बच्चों की आत्महत्या,विशेषज्ञ कहते हैं डिप्रेशन है,और हम भी कहते हैं आप भी कहिये लेकिन यह क्यों है?इसका जवाब कोई नहीं ढूंढता?न कोई देना चाहता है।हर रोज कोटा में रहने वाले बच्चों के माता पिता उनसे बस यह जानने के लिए फ़ोन करते हैं की बेटे पिछले सप्ताह के मुकाबले इस सप्ताह नंबर कितने आये,यह कोई नहीं पूछता की बेटे अच्छे से खाना रहना सुकून है या नहीं,भेजने से पहले यह नहीं पूछते की तुम्हे यह पसंद है या नहीं?कभी बच्चों की चाहत के बारे में की वह झेल पायेगा या नहीं यह नहीं पूछते जिसका नतीजा यह होता है बच्चे डर या झूठी शान शौकत बचाने के चक्कर में अपनी ज़िन्दगी से हाथ धो बैठते हैं।इस आधुनिक युग में जब ऐशो आराम के हर साधन उपलब्ध हैं बास समय का अभाव है ऐसे में बच्चे घर से दूर निपट अकेले डिप्रेशन में नहीं जाएंगे तो और क्या होगा?इस साल के शुरू से अब तक के पांच महीनों में छः बच्चों ने मौत को गले लगा लिया क्योंकि और कोई था भी तो नहीं,न गले लगाने वाला न पीड़ा सुनने वाला न ही इन्हें समझने समझाने वाला ऐसे में उनके पास कोई दूसरा रास्ता नहीं है।सबसे आश्चर्य की बात यहाँ है की पिछले कई सालों से यह निरंतरता बनी हुई है,लेकिन इससे कोटा जाने वालों और भेजने वालों की संख्या में कोई कमी नहीं दर्ज हुई है।बच्चे जो मुश्किल से इंटर की परीक्षा उत्तीर्ण होते हैं उनपर अपनी सोच रुपी बोझ थोप कर घर परिवार से सैकड़ों किलोमीटर दूर कर दिया जाता है,जब उन्हें यह तक समझ नहीं होती की बाहर का माहौल,रहन सहन,खान पान कैसा होगा वो कैसे उस माहौल में खुद को ढालेंगे ऐसे में उम्मीद के बोझ लिए वो कोचिंग रुपी फैक्टरियों के बंधुआ मजदूर भर बनकर रह जाते हैं।यहाँ दोष न सिर्फ माँ बाप,बच्चों और कोचिंग संचालकों का है बल्कि इस देश की शिक्षा पद्धति का भी है,इसमें भी आमूलचूल परिवर्तन की आवश्यकता जान पड़ती है।दूसरे देशों में बच्चे अपनी इच्छा अनुसार पढ़ने अपना भविस्य चुनने को स्वतंत्र होते हैं लेकिन हमारे यहाँ पड़ोसी के बच्चों को देख कर,अपने माँ बाप या समाज के कहने अनुसार ही बच्चे पढ़ते और अपना भविष्य बनाते हैं।माँ बाप के अरमानों का भार जब वे सहन कर पाने में असमर्थ हो जाते हैं,उन्हें आगे पीछे सहारा देने वाला कोई जान नहीं पड़ता है,जब डिप्रेशन के अलावा उनके एक्सप्रेशन को समझने वाला कोई नहीं मिलता तब उन्हें पंखे और फन्दे के अलावा कोई सगा समझ नहीं आता है और यहीं से कोटा का काँटा किसी की इहलीला,किसी के सपनों को दफ़न कर देता है।
#विजय

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