कई दिनों से यह मन उद्गार व्यक्त करने को व्यथित था लेकिन क्या बताऊँ की यह त्योहारों का मौसम कैसा था? क्या लिखूं की कैसा बीता? कैसे बताऊं, कैसे समझाऊं की इस मौसम वाली धुंध पर मजबूरी की एक शिकन थी, नौकरी की मजबूरी थी, कोई एक त्योहार मना सकता था वह पहले ही दशहरा के रूप में मना आया था? कैसे कहूँ की छठ के दिन सो गया ताकि घर की याद न आये? कैसे लिखूं की कुछ न करते हुए और कुछ न मानते हुए भी यह त्यौहार हमारे लिए महापर्व है। बचपन मे मम्मी से डांट सुन कर भी रोड पर बेकार में झाड़ू मारना, पानी डालना, धूल न उड़े, व्रतियों को कोई तकलीफ न हो उसके लिए हर इंतजाम करना एक मुकाम होता था। आज अच्छी नौकरी,ठीक-ठाक सफलता ने भी उसको फीका कर दिया। क्या बताऊँ की जब मैं था तो घर मे कम से कम दोस्तों के यहां से मेरे नाम पर प्रसाद आता था। इस बार वह भी न आया। कैसे बताऊं की सुबह में कुछ न होते हुए भी वह मंदार का किनारा, वह सुखनिया का घाट वह जोर जहां हमारे छोटे से बढ़ते शहर की छठ होती है वह इस बार सुना से नजर आया। कैसे कहूँ सब पाकर भी बहुत कुछ मैंने खोया।
खैर, छठ को छोड़िए दीपावली ऐसी मनी जैसी नीरस सी कोई शाम, अकेला, बेकार, बोझिल, बेसहारा और मजबूरी का एहसास दिलाती एक ऐसी सांझ जिसकी सुबह तो हुई लेकिन कई सवालों के जवाब तलाशते हुए। दीपावली की रात हमारे मोहल्ले में पटाखे पर प्रतिबंध नही होता, हमारा शहर/गांव दिल्ली जैसा प्रदूषित नही होता, हमारा समाज दिल्ली वालों की तरह प्यास लगने पर पानी के लिए आश्रय नही तलाशता, मानवता वहां जिंदा है, पर्यावरण ही हमारी पहचान है वाला नारा चरितार्थ है। खैर वह रात बहुत कुछ ऐसी थी जहां मैं बेसहारा था, कोई अपना पास न था, दिखावे वाली पार्टी के कई निमंत्रण थे लेकिन वहां न जाना उचित था। मैं गया भी नही न जाऊंगा यह पक्का है। मैं सामाजिक इंसान हूँ इसमे कोई संदेह शायद ही किसी को होगा लेकिन इसके बावजूद अगर किसी को है तो बस एक लाइन सब को खुश रखूं यह मेरी औकात नही,इंसान हूँ…. भगवान नही।
खैर अकेले के लिए एक किलो मिठाई, सजावट में व्यस्तता,कई प्रकार के भोजन बनाने की लालसा, मन लगाने का हर प्रयास हर त्योहार पर विफल रहा। कुछ याद रह गया तो गंगा का किनारा, छठ की धुन, पटाखों की आवाज़, दियों का उजाला, केले के पेड़ और फल, छठ की तैयारी, अर्घ्य, खरना, कद्दू भात इत्यादि। घर से दूर रहते दस साल हो गए लेकिन शायद ही कोई मौका था जब मैं दीपावली पर घर से दूर था। छठ पर बिहार से बाहर था। ठेकुआ बहुत याद आ रहा है। आज ऑफिस में मंगाकर प्रसाद पा तो लिया लेकिन उस उल्लास और खुशी की बलि बेदी पर अपनी नौकरी रूपी मजबूरी की कुर्बानी देनी पड़ी। मुझे नही पता मेरे जैसे कितने हैं जो छठ पर न जा सके और यही वजह रही कि दिल्ली छठ के गीतों से सराबोर सी नजर आई। यकीन मानिए आप दिल्ली की यमुना में छठ मना लें, गुजरात के साबरमती में, लंदन के थेम्स में या चीन के किसी शहर में लेकिन जो मजा बिहार में है वह दुनिया की कोई भी हासिल उपलब्धि, कोई भी स्वच्छ नदी, कोई भी व्यवस्था, कोई भी सरकार, कोई भी इंतजाम आपको नही दे सकता है।
खैर जाने दीजिए अब इन बातों का कोई खास फायदा नही है। बिहारी, बिहार, छठ सबसे ऊपर होकर भी गली और गाली के पात्र रहे हैं। हमारे पुरखों ने क्या कैसे कब क्यों किया यह जाने दीजिए लेकिन अपनी दयनीय व्यवस्था पर सोचिएगा। नौकरी की मजबूरी को समझियेगा और फिर यह सब समझ बहुत आसानी से आ जायेगा। ट्रेनों की भीड़, नौकरी की मजबूरी, छुट्टी की पैरोकारी, टिकट की मारामारी, और न जाने कितनी समस्याएं और सवाल लेकिन अगले साल छठ आएगी और मैं घर जाऊंगा यह उम्मीद पक्की है। नौकरी जाए या रहे लेकिन दीपावली छठ अगले वर्ष घर पर होगा यही प्रतिज्ञा है। जय बिहार।