बंगाल में दिखा राजनीति का धर्म नहीं, बस धर्म की राजनीति

राजनीति में सबसे बड़ी बात होती है जिससे समाज और देश का भला हो सकता है वह है राज करने की नीति और उसके धर्म का पालन लेकिन आज के समय में न नीति है, न नियत है, न मुद्दे हैं. देश लोकतंत्र के त्योहार का उत्साह मना रहा है. बड़े छोटे दलों ने लगभग पूरी ताकत झोंक राखी है. छह चरण पूरे हो चुके हैं और आखरी चरण में एड़ी छोटी का जोर लगाया जा रहा है. इस दौरान बड़ी घोषणाओं से ज्यादा ऐसे मुद्दों पर बात हुई जिससे शायद जनता का लेना-देना ही नहीं है. निजी तौर पर हमले हुए. परोक्ष और प्रत्यक्ष तौर पर खूब जुबानी जंग लड़ी गई और यह बदस्तूर जारी है. खास कर बंगाल की बात करें तो जूतम पैजार भी खूब देखने को मिला है.

ममता बनर्जी की सरकार जो केंद्र पर हमलावर थी वह अब खुल कर विरोध में ऐसी आई की कार्यकर्ताओं में जूतमपैजार की नौबत आ पड़ी. हिंसा भड़क उठी. हर चरण के साथ यह बढ़ती चली गई.ताज्जुब की बात इस दौरान यह रही की हिंसा के बीच भी मतदान का प्रतिशत बढ़ता गया. तल्खी बढ़ती गई और भाषा की मर्यादा तार-तार हो गई. आरोप प्रत्यरोप से ऊपर जब हिंसा फैली तो मीडिया में यह ख़बरें उठने लगी. तब लगा शायद निर्वाचन आयोग अब कुछ शख्त एक्शन लेगा. हालाँकि अभी तक ऐसा कुछ नहीं हुआ है. ऐसे में देखने वाली बात होगी कि जिस तरह बंगाल रणभूमि बना हुआ है और पुरे देश का ध्यान अपनी तरफ हिंसा की वजह से खिंच रहा है वैसे में आने वाले नतीजे किसके पक्ष में जायेंगे और इसके पीछे कौन सी वजहें होंगी. फ़िलहाल २३ मई तक इंतजार करना मुनासिब है. उससे पहले किसी को दोष देना या सही गलत कहना शायद उचित न होगा।

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